ओशो के संबंध में लल्लनटॉप में हुई चर्चा और आशुतोष राणा के विचार ओशो के द्वारा अपने बालपन के क्रीड़ास्थली जैसे भगवान कृष्ण ने द्वारका के पूर्व मथुरा का वर्णन अपनी लीलाओं में किया है ऐसा नहीं करने का गाडरवारा के संबंध में नहीं करने का व्यथा अपने इस इंटरव्यू में की है ।इस संबंध में जहां तक मैं जानता हूं की गाडरवारा साइखेड़ा का क्षेत्र नर्मदांचल का वह क्षेत्र है जहां अच्छे-अच्छे ऋषि मनीषी और विचारकों के द्वारा अपने-अपने ज्ञान से जगत को अभिभूत किया है ।परंतु जहां तक यह बात तर्क में आती है की अपने पितृ ऋण ,देवऋण, प्रकृति ऋण (भूमि तत्वों का कर्ज) उतारने के लिए हर पुत्र को उसे तर्पण ,अर्पण और स्मृति में वर्णन करता है । ओशो का इस संबंध में कोई भी जिक्र नहीं करना और अपने मित्रों के नाम भी स्पष्ट रूप से नहीं बताना अपितु म***** नसरुद्दीन को के रूप में अभिव्यक्त करना शायद उनकी इस कुंठा को प्रदर्शित करती है की उस समय गाडरवारा द्वारा उसे उचित सम्मान और रिस्पांस नहीं दिया गया होगा अन्यथा शायद ही कोई ऐसा कृतघ्नि होगा जो इस बाल लीला के समय को भूलने का प्रयास करेगा।मेरी जानकारी में कुछ लोगों के द्वारा तो यह भी कहा जाता है जब ओशो को जबलपुर और पुणे की आश्रम से बहिष्कृत करने के लिए लोगों के द्वारा उसे भगाया जा रहा था उसे समय उसने गाडरवारा में अपना आश्रम खोलने के संबंध में भी लोगों से विचार विमर्श किया था कि उसे वहां जगह दिलाई जाए जिससे वह गाडरवारा का विकास भी कर दी और वहां की सड़कों को कांच की सड़कों में बदल दे परंतु शायद लोगों ने उसे समय उसका उपहास किया और उसे शायद बहिष्कृत भी किया होगा ।लोगों ने उसे उसे समय न समझा न सम्मान दिया। अलबत्ता उनके कुछ शिष्य गाडरवारा के अच्छे धनी मानी लोगों में से रहे होंगे ।जिन्होंने बाद में ध्यान साधना हेतु उनके आश्रम बनाने का यह प्रयास किया है । शायद उस समय 1960 से 1980 के समय तक यदि ऐसा हुआ होता तो बात कुछ और होती ।शायद यह मेरा अपना दृष्टिकोण है ,परंतु जिस प्रकार ओशो ने स्वयं को विश्व से जोड़ लिया था और अपने नाम को उस महान समुद्र ओशोनिक के समकक्ष बनाकर विलीन कर लिया था जो चंद्र मोहन जैन नाम से उठकर महान ओशो बन गए थे ।और जैसा कि हमारे धर्म ग्रंथो में वर्णन आता है सातों भूखंड और सातों द्वीप में भारत ही सर्वोपरि था यह कपोल कल्पित लगता है की अन्य महाद्वीप अमेरिका ऑस्ट्रेलिया एशिया हमारे धर्म ग्रंथो में कहीं उल्लिखित ही नहीं होते ,इससे ऊपर उठकर उन्होंने वास्तव में चांद सूरज और अन्य ग्रहों की समकक्ष पूरे विश्व का प्रतिनिधित्व किया ।
मैं ,मेरा से कोसों दूर हमारा को संबोधित,उल्लेखित किया। परंतु मानव मस्तिष्क ,मानव संवेदना तो इसी पर केंद्रित रहती है की
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।
शायद इसी दर्द को लेकर आज भी लोग ओशो से शिकायत रखते हैं जो यथार्थ है।
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