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क्या ओशो संपूर्ण ब्रह्मचारी थे?

क्या ओशो संपूर्ण ब्रह्मचारी थे

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लोग समझते है की ओशो का सुंदरता से लगाव होना उसके मनचले चरित्र को उजागर करता है परंतु वास्तविकता ऐसी नहीं है ।कई जगह ओशो की वाक्यांश द्वारा इस बात को कहा गया है की अगर गुलाब का फूल सुंदर है तो उसे तोड़ो मत केवल उसकी सुंदरता को निहारो कोमलता को महसूस करो ।यह आवश्यक नहीं कि वह आपके शेरवानी या कोट का हिस्सा बने जैसा कि नवाब लोग करते हैं ।अच्छा फूल दिखा दो तोड़कर अपने इच्छा अनुसार अपने कोट पर लगा लिया। सुंदरता का पान ,सुंदरता का बखान और सुंदरता का गुणगान पास आकर भी किया जा सकता है और उसके दूर रहकर भी किया जा सकता है ।हमारे पौराणिक ग्रंथों में पुराणों में भी माता और देवियों को अति सुंदर मादक और अंग वस्त्रों में दिखाया जाता है। जो कहीं से भी अश्लील नहीं लगता। ये तो एक संतृप्त और उसके आधिपत्य का भाव दिखाता हुआ चित्र या परिवेश दिखाई देता है। जबकि दूसरे असंतृप्त भूखे नंगे लोगों को इस प्रकार महसूस होता है जैसे वह कोई 56 व्यंजन की भोजन की थाली देख रहा हो ।जो सभी प्रकार के ऐश्वर्य और परिपूर्णता से संपूर्ण होकर संतृप्त होता है वह कदापि डावा डोल नहीं हो सकता है। ऐसे परिवेश और चित्रों को देखकर लोग किसी के नपुंसकता अथवा उत्तेजित नहीं होने पर प्रश्न खड़ा करते हैं किंतु सच्चाई यही है की सुंदरता के पास जाना या उसे झरने के शीतल जल का पान करना का तात्पर्य ओशो का यह रहा होगा की क्या जबरदस्ती किसी आकृतियां सुंदर वस्तु को बिना सहमति के थोड़ा मरोड़ा जाए। जब तक की ऐसा कोई सहज अथवा विशेष निमंत्रण ना हो। यहां सभ्य समाज से सभी इसे अश्लीलता का सूचक समझ सकते है जबकि यह तो एक आकर्षण है और कोई ऐसा उपद्रव नहीं जो किसी हरम खाने अथवा सम्राट चक्रवर्ती राजा का अंत:पुर हो ।क्योंकि इस प्रकार का दृश्य असंतुष्ट लोगों के लिए निर्मित किया ही नहीं जा सकता ।क्योंकि जो भूखा प्यासा हो उसे गार्निश किया हुआ प्रेजेंटेशन की कोई जरुरत महसूस नहीं होती है। वह तो भोजन पर ऐसी टूटता है जैसे कभी महीनों से खाना ही न खाया हो। यह दुनिया संतृप्त सेक्स से उभरने वाले गुणों के लिए है जो हमेंशा गुलाब की पंखुड़ियों में सोते बैठते रहे हैं ।उन्हें परित्याग करने का पाठ सिखाने वाले उन अवस्था से निर्वाण की अवस्था को को जाने वाली अवस्था सीखने वाली हो सकती है।


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