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ओशो का गुरु द्रोणाचार्य को गरियाना

ओशो का गुरु द्रोणाचार्य को गरियाना

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ओशो का गुरु द्रोणाचार्य को गरियाना भला बुरा कहना शिक्षा जगत में गुरुओं का अपने धर्म के स्तर से नीचे गिरकर कार्य करने के गुण के आधार पर था ।आज भी, कल भी और आगे भी सदैव शिक्षा जीवन को आगे बढ़ाने वाली सम्मान ,दिलाने वाली विषय रही है ।क्योंकि जब आपकी शिक्षा का स्तर ऊपर उठता है तब जाकर आपको धन, सम्मान, ऐश्वर्य और सुख उसके बाद धर्म का लाभ प्राप्त होता है। इसलिए दादा भीष्म पितामह द्वारा कुरुवंशी राजकुमारों के शिक्षा दीक्षा के लिए उस समय के आईआईटी,आईआईएम संस्थान के जैसे सर्वोच्च गुरु का सानिध्य देना चाह रहे थे। जिसके तहत उन्होंने ऐसे गुरु को चुना जो उसे समय के सबसे सर्वोच्च काबिलियत रखने वाले महापुरुष रहे थे। किंतु उन महापुरुष की भी अपनी एक निजी स्वार्थ और राजसिक सेवा , निवास अपने घर परिवार के बाल बच्चे और गृहस्थी जीवन को राजसिक सुख दिलाने की चाह में गुरु द्रोण मानव धर्म को भूल बैठे ।और आरंभ से ही अधर्म के खेमे में जा बसे ।उन्होंने अधर्म के खेमे में रहकर न सिर्फ वहां का पानी पिया बल्कि वहां का नमक का स्वाद भी लिया ।जिसके कारण उनका रोम रोम कुरुवंश और उसके राजा धृतराष्ट्र हो या दुर्योधन हो उसके नाम का हो कर गिरवी हो गया रहा। जब गुरु धन के पीछे लोभी हो जाता है यह धन कमाने की अभिप्सा उसका पीछा नहीं छोड़ती ,उसे समय वह धर्म और अधर्म में भेद नहीं करा पाती ।यही कारण है कि गुरु द्रोण ब्रह्म ज्ञानी होने के बाद भी अर्थ ज्ञानी बनने के होने में लग गए और फिर एक बार जो दलदल में फसता है वह फसता ही चला जाता है ।

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उन्होंने भील पुत्र एकलव्य को सर्वप्रथम कुरुबंशी राजकुमारो को दिए जाने वाली शिक्षा के अनुकूल नहीं पढ़ा कर बात कर अन्याय किया जो आजकल के बड़े-बड़े कॉन्वेंट डी पी सी स्कूल भी कर रहे हैं ।उसके बाद जब उसने देख लिया कि बिना सुविधा और संरक्षण के भी प्रतिभावान मेधावी लगनशील विद्यार्थी को सफल होने में कोई सीमा बंद नहीं सकती है जो अभ्यास करता रहता है समर्पित भाव से वही ज्ञान और अनुभव , स्किल्ड होने का गौरव प्राप्त होता है ।इन हालात में हर तरह से मुंह के खाने के बाद अंतिम प्रयास उसे अनाम शिष्य से भी उसका विशेष अंगूठे की मांग करना जिससे कि उस शिष्य को आसानी से पराजित किया जा सके। कुटिल स्वभाव के गुरु द्रोणाचार्य जैसे युग के महापुरुष द्वारा किया जाना हमेशा जिज्ञासुओं और शिक्षा जगत के प्रेमियों ढकोसला और पाखंड पर चोट करने वाले समुदाय जो खरी-खरी बोलते हैं किसी से डरते नहीं लोगों को आनंद कर लगा ।वैसे ओशो ने अगर यह ठान ली कि आज भीष्म पितामह की बैंड बजानी है तो उन्हें कोई रोक नहीं सकता उसे छलनी करने के लिए…… ओशो के तरकश में तीर का भंडार होता है जो उनके तर्क की कसौटी में लोगों को सुनने समझने और विचारने के लिए मजबूर कर देता है कि वास्तव में ओशो कुछ भी गलत नहीं कह रहे थे।

 


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