जब आप बच्चे होते हो तब आपकी मांग खिलौने की रहती है। थोड़े बड़े होते हो तो आपकी मांग कुछ और बड़े महंगे खिलौने गाड़ियों की रहती है ।जब आप वयस्क हो जाते हो तब आपकी मांग ऐशो आराम और आजीविका के लिए नौकरी रूपए पैसे की होती है ।थोड़े उससे और बड़े हो जाते हो तो आपकी मांग सुरक्षा और आपके बुढ़ापे की व्यवस्था के लिए होती है। जब आप बुजुर्ग हो जाते हो तब आपको समझ में आता है कि यह सब तो आप भोग चुके ।अब आपको कुछ और मिल जाए जो इस जीवन की सच्चाई के बारे में अनुभव करा दे। फिर वह अंत समय आता है जब शरीर में कोई बल नहीं शेष रहता केवल जर्जर होते शरीर और भूली भूली याद दास्तान से आप उस भगवान से उस सर्वशक्तिमान से वह मांगते हो कि हे भगवान मुझे मुक्ति दे दे और अपनी सच्चाई से मिला दे ।तब तक जीवन के 75 वर्ष निकल जाते हैं ।इस बीच हम करीबन 75000 बार मंदिर ,मस्जिद, चर्च ,दरगाह के चक्कर चाहे अनचाहे लगा चुके होते हैं ।
तात्पर्य यह है कि जिस समय जो ज्ञान और उसकी मांग हमें होती है हम वही मानते हैं देने वाले से ।हम समझते हैं कि देने वाला हमें वही से देगा ।जो हमें पैसा ,संतान, सुख ,संपत्ति, शांति प्रदान करने के लिए हमें सबसे बड़ा दाता वही है ।तो इसमें हर्ज क्या है जैसा ज्ञान होगा जैसी बुद्धि होगी ।जैसी कहानी और समय की मांग होगी वैसा ही तो हम व्यवहार करेंगे। इसके लिए सबसे बड़ा दोष हमारे शिक्षक और अभिभावक होते हैं जो खुद अज्ञानी होते हैं। इसलिए उनके पास जितना अधकचरा ज्ञान होता है वही वह हमें प्रदान कर पाते हैं ।तो ऐसे में ओशो का यह महान ज्ञान हमारे लिए निर्मूल होता है। अतः जीवन की सच्चाई और वास्तविकता का आभास तो हमें उम्र के साथ-साथ ही होती है ।उम्र के पहले पाया गया ज्ञान अनुभवहीन होता है ।और वह बनावटी लगता है अगर बच्चों के मुंह से 75 वर्ष की आयु वाला अनुभव और ज्ञान की बातें हम सुने तो हम आश्चर्य करते हैं कि बिना दुनिया देखे बिना दुनियादारी देखें कैसे इस प्रकार की अद्भुत पकी हुई ज्ञान की बात कोई कर रहा है। इसलिए मेरा मानना है कि ईश्वर से सच्ची मांग करना सबके बस की बात नहीं है फिर वह परमपिता तो जानता ही है कि किसी कब क्या और कितना देना है।