मृत्यु के पहले स्वयं को जान लेना तो सभी लोग चाहते हैं ।एक ऐसा आश्चर्य जिसको जानने के बाद भी लोग मनाना नहीं चाहते ।ऐसा सत्य जिसे लोग जानने के बाद भी क्षण भर में भूल जाना पसंद करते हैं। ऐसी जीने की अभीप्सा भी किस काम की जो लोगों को सत्यता का बोध कराने के बाद भी भुला देती है कि वह मिट्टी के इस नाशवान शरीर के वह पुतले हैं जो रंग मंच के कर्मी की तरह अपना अपना रोल अदा कर रहे हैं, और इस जीवन का अंत यानी मृत्यु किसी न किसी कारण के रूप में सबकी जीवन में आती है ।चाहे शरीर जर्जर हो जाए, बीमारी युक्त हो जाए अथवा अकाल मृत्यु हो जाए ।कोई ना कोई कारण से इस जीवन में जो आया है वह मृत्यु का ग्रास बनाकर जाएगा ही। मगर फिर भी न जाने क्यों आज फिर जीने की तमन्ना है मान कर आशावान होकर लोग अंतिम दम तक वेंटिलेटर पर जद्दोजहद करना पसंद करते हैं कि थोड़ा और जी ले ,थोड़ी और दुनिया देख ले, थोड़ा कुछ और बचा काम कर लें ।इस काम का, इस दुनिया का अंत ,जिम्मेदारियां के अनंत सीमा तक निभाने का मन करता है। चाहे 2 जून की रोटी सहज मिल रही हो चाहे आप उसे जीवन के लिए तरस रहे हो। जो बिना तनाव के लोगों को जीने के लिए मिलता हो ,क्योंकि संघर्ष सबके जीवन में है ।सुख कुछ नाम मात्र लोगों के जीवन और दिलों दिमाग में है अन्यथा अज्ञानता और सही गुरु के अभाव में ध्यान धारणा और समाधि का आनंद लिए बिना लोग स्वयं को इस मिट्टी के देह को जानकर भी भूल जाना पसंद करते हैं। माया नगरी में डूबे रहना ,व्यस्त रहना और सब के साथ खुले मिले रहना पसंद करते हैं ।कोई भी वानप्रस्थ या अपनी अंतिम यात्रा को साक्षी भाव से ग्रहण करना मंजूर नहीं करता है ।ओशो यही बात बताना चाहते हैं की जीवन की अंतिम यात्रा साक्षी भाव से अपनी उम्र के अनुसार पूरी करते हुए मौत को गले लगा लेना बिना किसी आकांक्षा और लालसा के……
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