आज ओशो को सुपारी मिली हुई है कि वे जनता की अदालत में गाय के दूध पीने वालों के विरुद्ध अपना दलीलें पेश करें ।हां इसे मैं दलील ही कहूंगा ।क्योंकि अच्छी चीज को भी बुरी साबित कर देना तर्क और अच्छे सबूतों से पहुंचा हुआ वकील का अपना फन होता है ।ओशो अगर चाहे किसी चीज को पूरी गहराई तक एक्सरे करना है तो उसकी परतदार परत को छीलते जाते हैं। चाहे सामने वाला लहू लुहान हो जाए उसकी उन्हें परवाह नहीं होती ।मानव सभ्यता बहुत स्वार्थी है। जैसे-जैसे पाषाण युग और उसका विकास होता गया हुआ मानव नुकीले पत्थर और डंडों से शिकार करने की जगह औजार और अस्त्र बनाने लगा ।और फिर मांस का सेवन करने के लिए अपने शिकार को आग में भूनता चला गया ।उसमें से कुछ प्रजाति अन्न और पशुपालन की ओर अग्रसर हुई। इस प्रकार धीरे-धीरे कुदरत से लोग वही चीज मांगते गए जो कुदरत शांति से प्रदान कर दे अधिक मात्रा में प्रदान कर दे और बिना रोये चिल्लाए अथवा नेगेटिव प्रभाव छोड़े बिना ज्यादा उत्पात दिखाएं ।
इस प्रकार सबसे ज्यादा खेती से अन्न एक बीज के बदले 100 बीच पैदा होने लगा ।पशुओं का पालन शुरू हुआ जो दूध और बाद में मांस के रूप में इंसानों को प्राप्त होता था ।वह एक के बदले 20 गुना मिलने लगा। इस स्वार्थ के कारण इसे विकसित किया गया ।मानव सभ्यता धीरे-धीरे विकसित होती गई और उनमें से जो लोग बहुत ज्यादा मांसाहारी थे वह स्वयं को अन्न और दूध से अलग करते गए। जबकि वास्तव में किसी भी फसल या अन्न का बीज भी उसका अंश होता है उसके अंदर जान होती है जिसको हम उबालकर पीसकर खाते हैं उसकी हत्या जैसी ही होती है ।अतः यह कहना गलत है कि हम मांसाहारी हैं या हम शाकाहारी है। वास्तव में भोजन की कोई जातपात नहीं होती जिसको जो अच्छा लगता है सुपाच्य होता है आसानी से सुलभ होता है। उसे वह खाता है और अपनी दलीलें देता है।
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फिर जहां ओशो का केवल एक समुदाय ब्राह्मण को लटपटानंद कहकर उनकी उपहास उड़ाना गलत है क्योंकि भगवान ने स्तनपान करने वाले हर जीव के अंदर वह शक्ति दी है कि वह कुदरत से सभी शाकाहार चीजों को खाकर उसके रासायनिक तत्व कैल्शियम प्रोटीन आदि का समावेश अपने दूध या अन्य उत्पाद के रूप में लोगों को दे सके ।और फिर करोड़ अरबो की संख्या में बढ़ती हुई आबादी आखिर जीने के लिए कुछ न कुछ तो खायेगी ही ।अब आगे यह भी सुना जा रहा है की बढ़ती हुई मानव प्रजाति के भूख को मिटाने के लिए प्रोटीन से परिपूर्ण कीड़े मकोड़े इल्लियों आदि का भी अब बहुतायत से खान-पान होने लगा है ।समुद्र के किनारे रहने वाले सभी मानव सभ्यता पहले से ही समुद्री जीव जंतुओं के भक्षण करते हुए अपना जीवन यापन कर रही थी।ऐसे समय किसी के जीवन और खान-पान-पर उंगली उठाना या व्यंग करना अच्छी बात नहीं है। फिर ओशो तो ओशो ठहरे उन्हें 360 डिग्री में अपने तर्क बाणों की वर्षा करना बखूबी आता है। इसलिए उन्होंने इस दिशा में भी अपने उपदेश अस्त्रों का उपयोग किया है ।जो निस्तेज है। इसका कोई भी पहलू सराहनीय नहीं है ।क्योंकि जब आदमी भूखे मरने लगता है तब उसे समय उस ज्ञान की बातें नहीं कहलवाई जा सकती हैं। पहले पेट की अग्नि बुझाई जाती है फिर जब ज्ञान का झरना फूटता है तो सुनने में आनंद आता है।इसलिए आदिकाल से चले आ रहे प्रोटीन और भोजन के स्रोत दूध का सेवन करना मेरी नजर में मांसाहार के तुल्य नहीं है।
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