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काम कला में सत्य प्रतीत नहीं होता है

काम कला में सत्य प्रतीत नहीं होता है

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इस पृथ्वी में चाहे कोई महिला हो आश्रित हो या कर्मचारी हो सब की भूमिका उस नारी के समान होती है जो अपनी भूख चाहे वह पेट की हो, प्रतिष्ठा की हो या शरीर की हो उसे क्रमशः मिटाने का प्रयास करती है। यह बात बिल्कुल गलत है की सभी महिलाएं आक्रामक जीवनसाथी को पसंद करती है की जो उन्हें आनंद शारीरिक सुख की गहराई में कढ़ोर के ले जाए। सर्वप्रथम महिला अपने पेट ,अस्तित्व ,सम्मान के लिए चिंतित रहती है ।जब इन सब की प्राप्ति उसे सक्षम पुरुष ,मलिक या एंपलॉयर से मिलने की संभावना पूरी हो जाती है या मिलने लगती है तब वह महिला कर्मचारी अथवा आश्रित जन उससे और प्रसन्न होती है। और उसके बाद जीवन का दूसरा घटक याने की शरीर की भूख की शांति करने वाला कोई ऐसा शख्स मिले जो उसे पर ईगोलेस होकर मतलब उसे उसके तन की सुध बुध न रहे, दिन बादल अवस्था का ख्याल ना रहे वस्त्र विहीन हो कर वह बिल्कुल दिगंबर हो जाता हो । और उसके बाद महिला ,कर्मचारी ,आश्रित को अपने शक्ति ऐश्वर्य और प्रयास से उसे चरम बिंदु तक ले जाता है ,जहां उसे कई प्रकार के आनंद की अनुभूति होती है ।चाहे वह महिला हो ,कर्मचारी हो या आश्रित हो उसे ऐसे आनंद की वह अनुभूति होती है जैसे कि उसने सब कुछ पा लिया है। और प्रेम की आनंद की तथा कृतज्ञता का वह रस उनके मानो शरीर से ऐसे रिसता है झड़ता है की देने वाला का ईगोलेस और लेने वाले कार्यकर्ता कृतज्ञता का युग्म हो जाता है , एकाकार हो जाता है ।जिससे की यह प्रतीत होता है की मनुष्य अपनी क्रूरता को ,अपने गलतियों को ,तनाव को दूर करने के लिए महिला रूपी शरीर का भोग करना चाहता है ।मेरे अनुभव में 90% महिलाएं जो सात्विकता से परिपूर्ण होती है उन्हें हमेशा आह्वान पुरुष की ओर से ही मिलता है और वह केवल उसका साथ देती है उसकी खुशी के लिए और अपनी सुरक्षा और स्वार्थ पूर्ति के लिए ।इसके अलावा और कुछ भी इस काम  sex कला में सत्य प्रतीत नहीं होता है दुनिया की रीति और रिवाज में।

 

Osho regarding sex

 

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