जैसा खाओगे अन्न वैसा रहेगा मन
यह बात तो सभी लोग कहते हैं हिंसक पशुओं के आंतो की लंबाई मनुष्यों की शाकाहारी लोगों की आंत की लंबाई से कम होती है ।क्योंकि उनके पाचक तत्व में एसिड भी ज्यादा होता है मनुष्य के पाचक तत्वों की अपेक्षा । मगर बात यहां स्वाद अनुसार भोजन लेने के लिए लोग तेल में तल के, आग में भुज के जिस प्रकार मांस का निरामिष भोजन करते हैं। वह तो अरबों की आबादी वाले इस पृथ्वी पर पर्यावरण का सरंक्षण और बायोडिग्रेडेबल का सिद्धांत है , जीवन चक्र है ।जिसको असुर जैसे जीना है वह असुर जैसे जिए और जिसको सुर जैसा मानव जैसा जीना है वह अपनी मानवीय प्रवृत्ति को जिंदा रखते हुए सात्विक और सामिष भोजन ग्रहण करें। पर जहां तक ओशो ने बताया है कि दूध निरामिष भोजन की श्रेणी में आता है वह किसी न किसी के खून का अंश होता है तो देखा जाए तो कुदरत प्रत्येक जीव को सर्वप्रथम मांसाहार बनना ही सिखाती है। क्योंकि हर जीव अपनी माता के वक्त स्थल से शिरसागर जैसा दुग्ध का पान कर ही अपने जीवन को उन्नत करता है बढ़ता है और स्तनपान के द्वारा आवश्यक तत्वों को लेकर निरोगी और पुस्ट बनाता है ।अब यहां हम यदि कुदरत के द्वारा किए जा रहे हैं इस क्रम को ही झुठलाना चाहे तो माता के स्तन में उत्पन्न होने वाला दूध यदि बच्चों के द्वारा पिया नहीं जाएगा तो कई प्रकार के डिसऑर्डर्स कैंसर बीमारियां आदि भी पैदा हो सकती है। इससे बचने के लिए कुदरत और भगवान ने प्रत्येक जीव को इस क्रम को जीना सिखाया है की…
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दूध पियो लेकिन रखो हिसाब थोड़ा-थोड़ा पिया करो।
अतिरेक हर चीज की त्याग करने की योग्य होती है क्योंकि कहां भी गया है …
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अति सर्वत्र वर्जयेत
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