पुरुषों को वीर्य को संभाल कर और आवश्यक जगह पर रखने में ही में ज्यादा बुद्धिमानी है ।
पुरुषों को वीर्य को संभाल कर और आवश्यक जगह पर रखने में ही में ज्यादा बुद्धिमानी है ।
जीवन में जो भी अंग भगवान ने हमें एक प्रदान किए हैं उसका उपयोग बहुत सोच समझकर और दूसरे अन्य अंगों की तुलना में जरूरत पड़ने पर या बहुत ही आवश्यकता होने पर किया जाना चाहिए ।जैसे सुनो सबकी पर बोलो जरूरत पड़ने पर या किसी के द्वारा सलाह मांगने पर ।देखो सब जगह को सब लोगों को लेकिन बोलो जब जरूरत पड़े जब आवश्यक हो।इसी प्रकार जननेंद्रिय भी भगवान ने मनुष्य को एक ही प्रदान की है जिसके माध्यम से हम उनकी अति आवश्यकता होने पर उससे आवश्यक अनावश्यक चीज निष्कासित करें ।ओशो ने जिस प्रकार पुरुषों की वीर्य स्खलन के बारे में बताया है वह सब के साथ सबके शरीर के अनुरूप नहीं है। सात्विक भोजन करने वाले सात्विक आचरण करने वाले लोगों के लिए यह बात बिल्कुल गलत है । उलट इसके तामसिक भोजन करने वाले तेज लहसुन ,प्याज ,मांस ,मदिरा, वियाग्रा आदि उत्तेजक पदार्थों का सेवन करने वालों के लिए इस प्रकार की विचार और कार्य उचित हो सकते हैं । किंतु सात्विक लोगों के लिए हमेशा इस प्रकार के कथन और क्रियान्वयन पर अंकुश लगना चाहिए। क्योंकि जीवन में मांस ,रुधिर और मज्जा के बाद वीर्य का स्थान आता है ।जाहिर सी बात है जिसका स्थान शरीर में स्वर्ण के समान हो उसे व्यर्थ नाली में बहा देना मूर्खता होगी ।उसके संचालन और संधारण में विशेष सावधानी का रखा जाना अति आवश्यक है।जिस प्रकार शरीर में खून की कमी होने से शरीर अतिरिक्त पतला खून बना देता है की बात मेडिकल साइंस के अनुसार सही है। वही मज्ज़ा और वीर्य का स्थान भी होता है जिसे खून से बनने में समय तो लगता है ।जैसे दूध से घृत बनने में समय लगता है। पर सोचिए जिसकी निर्माण में इतना समय लगता हो जिसे संचित रखने से लोगों में बीमारी के प्रति स्वयं को निरोगी बनाए रखने के लिए इम्युनिटी पावर रोग प्रतिरोधक क्षमता को तंदुरुस्त बनाए रखने के लिए शरीर में महिलाओं को रज और पुरुषों को वीर्य को संभाल कर और आवश्यक जगह पर रखने में ही में ज्यादा बुद्धिमानी है । दलाईलामा को देख लो। यह चरक सुश्रुत और पतंजलि जैसे महान आयुर्वेदाचार्य का भी कथन है जिसे नकारा नहीं जा सकता। न जाने ओशो ने क्यों इस प्रकार की बातें बिना शरीर धर्म जाति खान-पान के देखे हुए क्यों कह दी ,यह आश्चर्य का विषय है। क्यों कि यह देखा और आजमाया गया है की जो लोग जीने के लिए खाते हैं उनका जीवन अध्यात्म और इस प्रकार के उत्तेजक कामुक नहीं होते बजाय निरामिष भोजन करने वाले और तामसिक जीवन जीने वालों के ।फिर ध्यान और समाधि में भी आवश्यक शक्ति के लिए वीर्य का उर्ध्व गमन होना ही लोगों को ध्यान और समाधि में सफलता प्रदान करती है। जिसे स्वयं ओशो भी जानते हैं परंतु वह यहां लोगों को गुमराह कर गए हैं ऐसा प्रतीत होता है।
https://www.facebook.com/share/p/eZ9nmP84hzX5tTUS/?mibextid=oFDknk